शीर्षक - गाँव मद्धम है।

                          शिखा सिंह प्रज्ञा
                        लखनऊ ( उत्तरप्रदेश )
कड़कती धूप में अब तो नीम की छांव मद्धम है।
सुनहरे याद में मेरे अब भी एक गाँव मद्धम है।

नानी की कहानी में मेरा क़िरदार रानी हैl
दादी के दिए नुस्खे माँ को मुहजवानी हैl
नाना,दादा के कांधे पे मेरे वो आँख का आंसू,
एक लमचुस से खातिर कहाँ रोती जवानी है।
पुरखों की राह के पदचिन्हों पे पांव मद्धम है।
सुनहरे याद में मेरे अब भी एक गाँव मद्धम है।

नदी को पोखरा कहते पोखरे को नदी कहते है।
तीन दाएं कुदे कुएं में जो ऊपर नहीं निकलते है।
 नीला बंद पानी ही बचा जीवन में हो अब जैसे,
मछलियां भी नहीं तैरती जिनमे बच्चे वही तैरते है।
सफेद तालाबों में तैरती कागज़ की नांव मद्धम है।
सुनहरे याद में मेरे अब भी एक गाँव मद्धम है।


भरे बगीचे आम, खट्टी मीठी बेरों से वो हरी मटर दाने वाली।
चाचा की डांट की हर चीज नहीं होती खेत की खाने वाली।
बिछड़ गए सब यार दोस्त,यादों में रहा बस कुछ खेल पुराने,
पोसंपा,चलती टायर ,आइस बाइस,रस्सी कूद ,वो पैरन झूले वाली।
 रात की खाट बिछौनी आसमानी कहानी थी वो ठाँव मद्धम है।
सुनहरे याद में मेरे अब भी एक गाँव मद्धम है।

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