स्वांतः सुखाय की स्वयंभू सरकार
प्रदीप मिश्र
असंतुष्ट कुमार ने अपनी लग्न से वे सभी अधिकार पा लिए, जिनके लिए लोग जीवन भर तड़पते-तरसते हैं। इसके लिए बेगानों पर भी बरसते हैं। दिग-दिगंत में असंतुष्ट कुमार की यश-कीर्ति पुश्तैनी नहीं थी। सफलता को लेकर संशय होने पर उन्होंने स्वयं की समीक्षा की और सक्षम बनने के सूक्ष्म सूत्र तलाश लिए। वह सेल्फमेड कहे जाते हैं। बेचारे विरोधी बदनीयती से उन्हें स्वयंभू कहते हैं, जबकि वह सरकार के अधिकार की तरह ही सुख की अनुभूित और स्वयं की संतुष्टि के लिए समाजसेवा करते आ रहे हैं।
असल में जब इनकी उम्र परिवार के प्रति कर्तव्य निर्वहन की हुई तो उन्होंने निर्धारित किया कि वह कुछ ऐसा बनना चाहेंगे, जिसके आगे कार लगी हो। जगह-जगह इन्कार के बाद बेकारी से निकलने की बेकरारी में उनकी सतत साधना शुरू हुई और सर्वप्रथम उन्होंने धिक्कारने वालों की याद किया, जिनके कारण उनमें विकार उत्पन्न हो गए थे। हाथ-पैर चलाए और व्यंग्यकार बनने के लिए इस विधा में लिखना शुरू किया। कभी-कभी उनका लिखा दिखने भी लगा। ज्यादा तीखा लिखने के कारण उन्हें सुनना पड़ा कि इतनी नफरत कहां से लाते हो। खैर, उन्होंने इसे समय से समझा और 'सावन के अंधे...' की तर्ज पर लिखा। कुछ समय बाद उनके सृजन को चाटुकार बताने वाले सामने आ गए।
फिर भी असंतुष्ट कुमार ने हार नहीं मानी। उन्होंने कंठस्थ और उदरस्थ कर रखा था-'हार नहीं मानूंगा...।' फिर क्या था। खुद को साहित्यकार, कथाकार, कहानीकार, चित्रकार, फनकार, गीतकार, संगीतकार, कलाकार आदि बनने के लिए झोंक दिया। इनमें से किसी भी क्षेत्र में स्थापना से पहले उनके संस्कार पर सवाल उठा दिए गए। सरोकार गलत साबित करने के लिए षडयंत्र किए गए। साहित्यकारों ने उनकी शिक्षा को इस सेवा के लिए कदाचित उपयुक्त नहीं माना। कुछ दिन इंतजार के पश्चात पत्रकार बनने का प्रयास किया। सच्चे पत्रकार बनने के चक्कर में वह टुच्चे--लुच्चे नहीं हो पाए और सरकार की ओर से उन्हें भर-भर कर दुत्कार मिली।
बावजूद इसके उन्होंने संयम से काम लिया और संघर्ष के स्थान पर सरकार के साथ सुई-धागे की तरह संलग्न हो गए। उनमें स्वाभिमानपूर्वक ललकारने की अद्भुत शक्ति थी। इसके लिए उन्होंने साधना की थी। सरकार को उस समय इस विधा में पारगंत व्यक्ति की सर्वाधिक दरकार थी। उनके उर्वरा विवेक ने बचपन से ही उनके मस्तिष्क में यह विचार स्थिरता के साथ स्थापित कर दिया था कि नेता माने इसका उल्टा यानी 'ताने' होता है। जो जितनी ज्यादा तानता है, वह उतना ही बड़ा नेता होता है। स्वाध्याय से उन्होंने यह भी समझ लिया था कि समय जुगलबंदी के बजाय तुकबंदी का है। जैसे रोजाना रेजगारी की तरह रोजगार दो, जब तक दम है लगे रहो, सगे बने रहो। आगे ठगे रहो कहना समीचीन प्रतीत नहीं होता है परंतु ये सत्य तथ्य है कि 'जो तुमको हो पसंद वही बात कहेंगे...।' नई या पुरानी पेंशन की टेंशन मत लो क्योंकि क्या साथ लाए थे, क्या ले जाओगे...। याद रखिए। ख्वाब रहे, रुआब रहे, हिसाब रहे, किताब रहे। जवाब रहे न रहे पर सामने वाला लालजाब रहे।
अब अत्याचार और भ्रष्टाचार समाचार नहीं है। विकास का प्रचार ही संपूर्ण मानवता का सार है। उनकी बल्ले-बल्ले है। एक साथ कई कार में सवार हो जाते हैं। उनसे ही चमत्कार की उम्मीद है। जहां वह सशरीर उपस्थित नहीं हो पाते हैं, वहां निराकार को ही स्वीकार कर लिया जाता है। आकार-प्रकार में परिवर्तन और परिपक्वता से परिपूर्ण नमस्कार के साथ वह हमेशा बताते हैं कि उनके पास दो वस्तुएं ही स्थायी हैं। एक खुद का चोला और दूसरा जिम्मेदारियों का झोला। जब भी चोला बदलेंगे, झोला उठाकर चल देंगे। उनका रूप इतना भोला है कि पुरजनों को पूरे आत्मविश्वास के बाद भी वक्तव्य पर अविश्वास नहीं हो पाता है।
जगह-जगह जन-जन की जय-जयकार के कारण अंसतुष्ट कुमार प्रत्येक प्रकार से संतुष्ट हैं। निंदकों और दिलजलों ने भी परिष्कार कर लिया है। उन्हें गम नहीं है कि भूतकाल में उनका तिरस्कार किया गया। इस उपलक्ष्य में उन्होंने अपना नाम बदल लिया है। वतन के लिए जतन करते-करते वह स्वयंभू हो गए हैं। भविष्य में विपरीत परिस्थितियों में परोपकार की परंपरा को प्रोत्साहन मिलता रहे, प्रश्नचिह्न न लगे, प्रीतिकर परिणाम आते रहें, वह पथप्रदर्शक बने रहें और अपने पुनीत कार्यों के लिए उन्हें पश्चाताप न हो, इसलिए वह परमहंस की प्रथा के तौर पर उत्तराधिकार देना चाहते हैं। उचित पात्र के चयन के लिए बहुविधि प्रयत्न कर रहे हैं।